धवल चाँदनी सी वे - 1 Neelam Kulshreshtha द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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धवल चाँदनी सी वे - 1

एपीसोड --1

नीलम कुलश्रेष्ठ

गुजरात की प्रथम हिन्दी कवयित्री कुमारी मधुमालती चौकसी के संघर्षशील रोगी जीवन का जीवंत दस्तावेज

[ 'धर्मयुग' से अपना लेखन आरम्भ करने वाली मधु जी के लिए 'धर्मयुग 'के उपसम्पादक वीरेंद्र जैन जी ने लिखा था, "मधुमालती को देखकर मुझे अक्सर अंग्रेज़ी साहित्य की कुछ अकेली लड़कियों जैसे मिस एलिज़ाबेथ बेरेट, एमिली डिकिन्सन, एमिली ब्रांटी, वर्जीनिया वुल्फ़, और वर्ड्सवर्थ की वह लूसी ग्रे याद आ जाती है जो जंगल में सँझियारे में अपनी माँ को खोजने लालटेन लेकर गई थी --और फिर खो गई थी। वह कभी नहीं लौटी। एलिज़ाबेथ बेरेट मधु जी की तरह ही शैया -शायनी होकर रह गईं फिर भी संसार को श्रेष्ठ कविता दे गईं थीं।" ]

उनसे उसे मुहब्बत है, अनेक बार अपने मन को उलट कर देखा है अब इस बात में कोई संदेह नहीं है । उनसे मिल नहीं पाती तो रूह के तार खिंचते हैं । उनसे मिलकर उसे अलौकिक सुख का अहसास होता है । मुहब्बत यानि प्रेम कितनी भ्रांति पैदा कर देता है तभी तो पंडित जी कहा करते थे, ‘हिन्दी में दो ही शब्द हैं ‘ममता’ या ‘प्रेम’ लेकिन प्यार का एक अन्य रूप भी होता है । इस संसार से परे, रक्त के रिश्ते से परे, लिंगों से परे, किसी भी आत्मा की किसी आत्मा के लिए आसक्ति । गुजराती में इस अलौकिक रिश्ते की प्रस्तुति के लिए एक शब्द ‘लागनी’ जिसे हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है जो इस बंधनमय स्नेह की व्याख्या कर सके ।’

यदि सही शब्द का प्रयोग किया जाये मधु जी या मधु बेन से नीरा को' लागनी 'है । उसकी इस लागनी में स्वार्थ भी घुसा मिला है । उसका मन हमेशा संसार को साफ़ सुथरा, निर्मल, निष्कपट देखना चाहता है । सत्य को कहना सुनना चाहता है । जहाँ तक हो वह अपनी आत्मा की निर्मलता पर पड़ गई कीचड़ को उलीचती रहती हैं संसार के छल, कपट, झूठ से उसकी आत्मा लहुलुहान होती है । कभी ‘टिट फ़ॉर टैट’ करने की मजबूरी के कारण दूसरे को तकलीफ़ देकर स्वयं को भी पीड़ा होती है । वह इसी पीड़ा से आहत हो उनके द्वार बार-बार जा पहुँचती है किसी पवित्र चौखट पर सिर झुकाने का सुकून पाने।

पंडित जी की मधु जी के प्रति लागनी की क्या मिसाल है ? करोड़ों की जायदाद के मंदिर के महंत जिनके पैर छूने सैकड़ों गाँव के लोग हाथ जोड़े आते थे । शिष्य जिसके पैर दबाना अपना सौभाग्य समझते थे वे मधु बन के घर सारी ममता ठुकरा कर एक कठोर साधना करने चले आये थे, एक छोटे से मकान में ।

पंडित जी या मधुबेन किसकी विराटता ऊंची है तय करना मुश्किल है । उसने कई बार सोचा कि दोनों के विषय में लिखे लेकिन एक दूसरे को कुचल कर चलने वाली दुनियाँ में ऐसे व्यक्तियों पर कौन विश्वास करेगा ? उसकी कलम ही उन्हें पूरा कहाँ समेट सकती है ? लेकिन दुनियाँ को उनके बारे में बतायेगी नहीं तो ऐसा बोझ मन पर ले दुनियाँ से जा सकेगी ?

उसका प्रथम परिचय मधु जी से एक गुजराती समाचार पत्र के माध्यम से हुआ था । उसमें दो चोटी की ये सौम्य चेहरे वाली लड़की की तस्वीर जो पलंग पर तकिये से पीठ टिकाये बैठी थी । साथ में, उसका परिचय भी था कि वह हिन्दी कविता लिखती है । नीरा को आकर्षित करने के लिये अहिन्दी भाषी क्षेत्र में इतना ही काफ़ी था । समाचार पत्र में पता नहीं था ।

एक डेढ़ बाद पता नहीं कैसे उसके हाथ उनका पता लगा था । वह शहर का हृदय कहे जाने वाले गहमा गहमी भरे बाज़ार माँडवी के पीछे वाले पोल (गली) में उस पते को ढूँढ़कर उस सौ वर्ष तिमंज़िले पुराने मकान की सम्भल-सम्भल कर कदम रखती लकड़ी की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी । सीढ़ियाँ चढ़कर एक रसोई घरनुमा कमरा था जिसमें बायीं ओर एक पलंग था । सीढ़ी के पास रखी थी खाकी कवर चढ़ी सोफ़े की कुर्सी उसके पास रखी लकड़ी की अलमारी डिब्बों व बर्तन से भरी हुई थी । सामने ही था प्लेटफ़ॉर्म पर रखा हुआ घड़ा व एक पीतल का कलश उसके कदमों की आवाज़ से अंदर एक पुरुष की आवाज़ आई, “कौन है?”

“जी, मैं ।” वह उस कमरे के दरवाज़े पर खड़ी होकर अपना परिचय देने लगी जिसके गमले से सजी लोहे की जाली वाली बाल्कनी सड़क तक दिखाई देती थी । सामने कुर्सी पर एक वृद्ध बैठे थे । बायीं तरफ़ दीवार से लगे पलंग पर वही मुस्कुराती काली आँखों वाली मंझोले कद वाली गोरी लड़की पलंग पर तकिये से लगी बैठी थी हूबहु अख़बार में देखी हुई ।

उसने सफ़ेद धोती कुर्ता पहने चेहरे पर अधबनी काली सफ़ेद दाढ़ी व बाल वाले वृद्ध जिनकी चश्में के फ़्रेम से तेजस्वी आँखें झांक रही थीं, से परिचय करवाया, “ये पंडित जी, मेरे भाई इन्होंने ही मुझे हिन्दी भाषा का ज्ञान दिया है । इन्हीं की प्रेरणा से मैंने कविता लिखनी आरम्भ की ।”

पंडित जी के लिए 'भाई' शब्द उसे अटपटा सा लगा था क्योंकि वे उनसे ज़रूर बीस-इक्कीस वर्ष बड़े रहे होंगे । वह उस लड़की को चिररोगिणी समझ कर आई थी जो कभी-कभी शौकिया हिन्दी कविताएं लिख लेती होगी लेकिन उसकी कविताओं की डायरी पढ़ी, शब्दों के चयन, उनकी मधुरता उनकी गहनता को देख हतप्रभ रह गई थी । उनकी जन्म तारीख पढ़ कर तो और चौंक गई जिसे वह लड़की समझ रही थी वह उसकी माँ से सिर्फ तीन-चार वर्ष छोटी थीं, इसलिये ‘वह’ से ‘वे’ हो गई ।

मन जब भी जीवन की उलझनों से उदास हुआ वह पाती कि वह स्वतः ही सौ वर्ष पुराने मकान की सीढ़ियाँ चढ़ रही होती । सीढ़ियों की ‘खट-खट’ आवाज़ से अंदर से पंडित जी पूछते, ‘कौन हैं ?’

‘मैं..........नीरा ।’

अन्दर हमेशा निश्छल स्नेह स्वागत करता मिलता । मधु जी बोलतीं कम थीं, मुस्कराती अधिक थीं । उसकी पंडित जी से अधिक बात होती थी । चर्चा का विषय दुनियाँ का कोई कोना हो सकता था । एक दिन उसने ऐसे ही पूछ लिया, ‘पंडित जी आप कहाँ के हैं ?’

मधु जी मुस्कुरा दी थीं, “पंडित जी उत्तर प्रदेश के हैं लेकिन कौन से गाँव के हैं ये बात उन्होंने आज तक नहीं बताई ।”

वह कुछ ज़िद करने लगी तो उनके मुँह से निकल गया, “हम अलीगढ़ ज़िले के हैं ।”

“कहीं आप मेरे नानाजी के गाँव असरोई के तो नहीं हैं ?”

पंडित जी सन्न होकर उसका चेहरा देखते रह गये । उन्होंने न ‘न’ कहा न ‘हाँ’ कहा । आज सोचती हूँ उन्हें बिना जाने, बिना पहचाने जो अपार श्रद्धा व स्नेह प्राकृतिक रूप से उत्पन्न हो गया था कहीं उसकी जड़े 'असरोई 'शब्द से जुड़ी तो नहीं थीं ?

इन मुलाकातों में मधुबेन उसे अपने अतीत से जोड़े जा रही थीं वो नन्हा मुन्ना अतीत जो बम्बई की परेल रेलवे कॉलोनी के बड़े फ़्लैट में गुड़िया की शादी रचाया करता था, धमाचौकड़ी मचाया करता था । उनके पिता अपनी नन्हीं बच्ची को गोद में बिठाकर पूछते थे, ‘मेरी बेटी क्या बनेगी ?’

'‘आपकी तरह वर्कशॉप मैनेज़र ।’'

'‘धत् ! ये लडकियों का काम थोड़े ही है ।’'

वह अपनी आँखें गोल-गोल घुमाकर कुछ सोचती फिर उत्तर देतीं, ‘तो सूई लगाने वाली डॉक्टर।’

पिता डरने का अभिनय करते, '‘मेरे तो सूई नहीं लगाएगी ?’'

'‘पहली सूई तो आपके इस मोटे पेट में लगाऊँगी ।'’ वह उनके पेट में अपनी उंगली धँसाकर गुदगुदी करने लगती ।

नन्हीं मधु के तेज़ दिमाग़ को देखकर वह विश्वास करने लगे थे कि वह बहुत प्रगति करेगी। वह उसे डॉक्टर बनाने का सपना देखते-देखते स्वयं, सपनों की दुनियाँ में चले गये । माँ आँसू पोंछती जातीं और सामान बाँधती जातीं । कुछ बड़ा यूरोपियन फर्नीचर बेचना पड़ गया क्योंकि वड़ोदरा के पिता के पैतृक मकान में वह समाता नहीं ।

उनकी माँ ने वड़ोदरा आकर स्वयं को संभाला । पति का अधिकांश रुपया बैंक में फ़िक्स करा दिया । सुबह नियम से बाल्कनी की धूप में रोज़ गुजराती दैनिक समाचार पत्र में शेयर के भाव देखने बैठ जातीं । अपनी चतुरता से उनका भविष्य आँकती, शेयर खरीदकर, कभी बेचकर घर चलाने लगी । कुछ पैसा जोड़ती जाती जिससे बच्ची को डॉक्टर बना सके । तब वे सोच भी नहीं पाई थी कि उनकी बेटी डॉक्टर तो नहीं बन पायेगी हाँ, ज़िन्दगी भर डॉक्टरों की मोहताज रहेगी ।

बच्ची स्कूल का काम कर गली में उछलती फिरती । एक दिन वह तेज़ी से आगे भागी जा रही थी उसके पीछे भाग रही थी उसकी बेनपणी (सहेली) । सामने से आते साईकिल सवार ने घंटी टनटनाई लेकिन मधु अपनी रौ में साईकिल के मिट्टी सने आगे के पहिये से टकराकर उछल कर गली के एक पत्थर से जा टकराई । पत्थर सीधे पेट में लगा । दूसरे ही दिन उसका ऑपरेशन करना पड़ा । ऑपरेशन के समय डॉक्टर से न जाने क्या ग़लती हो गई कि पेट ने अन्न को पचाना ही बन्द कर दिया । वह कुछ खातीं तो तुरंत उल्टी हो जातीं । पेट ने बिल्कुल अन्न को पचाना ही बन्द कर दिया । मधु अब ठीक होगी, अब ठीक होगी, माँ इसी आशा में एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक भागती फिरीं । मधु की दुबली होती काया व स्याह पड़े चेहरे को देखकर माँ का कलेजा मुँह तक आ जाता फिर भी वे उसे तसल्ली बँधाती, '‘मेरी बच्ची जल्दी ठीक हो जायेगी ।’'

तभी किसी ने सुझाया, चाँदोद में एक नामी वैद्य है लोग जब शहरी डॉक्टर से हार जाते हैं तो उसी की शरण में जाकर ठीक होते हैं । उन्होंने दोनों माँ बेटी की चाँदोद के एक भव्य मंदिर में रहने की व्यवस्था कर दी ।

चाँदोद के उस मंदिर में माँ बेटी को दायीं ओर बना एक कमरा रहने को दिया । माँ सुबह उठकर नहा धोकर मंदिर की आरती की तैयारी में हाथ बँटाती । जब फूलों की माला बनातीं तो बचे हुए फूलों से एक छोटा सा गजरा बनाकर मधु के बालों में बाँध उसे आरती के समय एक खंभे के सहारे शॉल उढ़ाकर बिठा स्वयं तन्मय होकर आरती गातीं व मन ही मन प्रार्थना करतीं कि, ‘प्रभू ! मेरी बेटी तुम्हारी शरण में है इसकी रक्षा करना ।’

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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